हिन्दुस्तान में रोज हजारों केस दर्ज होते हैं और वो सैकड़ों सालों तक लटके रहते हैं। यहाँ तक कि उनका निर्णय आने तक बहुत कम लोग ऐसे बचे होते हैं जिन्हें उस केस की कोई याद हो और ये सब हमारे जीवन का एक अंग हो गया है इसीलिए इसमें विस्मय भी नहीं होता पर तब भी कुछ मुकदमे ऐसे होते हैं जिन पर जल्दी निर्णय आवश्यक होता है और आवश्यक होता है – उनसे जुड़े भ्रमों का निवारण क्योंकि केस की यादें चाहे दिमाग से दूर हो जाएँ पर ये भ्रम इतनी जल्दी भुलाया नहीं जाता और ऐसा ही एक केस जो भ्रमों के मायाजाल को खुद में समेटे हुए है, वो है – कुनन-पोशपोरा बलात्कार केस।
वो 23 फरवरी 1991 की शाम थी और जगह थी, कश्मीर घाटी के कुपवाड़ा जिले में पड़ने वाले दो गाँव – कुनन और पोशपोरा। यह वह दौर था जब कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था, अभी हाल ही में शांति के हिमायती कश्मीरियों के धार्मिक नेता मीर वाइज की हत्या की गई थी और सूबे में राष्ट्रपति शासन लागू था। साथ-ही-साथ कश्मीर का सैन्यकरण शुरू हो चुका था और तलाशी अभियान एक आम बात थी।
अब 23 फरवरी की तारीख में वापस लौटते हैं। उस दिन शाम को चौथी राजपूताना राइफल्स और अङसठवीं माउंटेन ब्रिगेड के सैनिक पड़ोसी गाँवों कुनन और पोशपोरा में दाखिल हुए। गाँवों से उन्हें कुछ संदिग्ध गतिविधियाँ संचालित होने का शक था, इसीलिए ‘सर्च एंड कार्डन ऑपरेशन’ शुरू किया गया। इस ऑपरेशन में सुरक्षा बलों की एक टुकड़ी गांव को घेर लेती है और घोषणा करती है कि गांव के सभी पुरुष एक मैदान में इकट्ठा हो जाएं। इस मैदान में इन पुरुषों को सेना की गाड़ी के सामने से गुज़रना होता है जिसमें चेहरा छुपाए एक कैट या मुखबिर मौजूद होता है। यह मुखबिर हर आदमी को गौर से देखता है और शिनाख्त करता है कि वह उग्रवादियों से मिला हुआ है या नहीं। इस दौरान अगर उसे किसी पर शक होता है तो वह गाड़ी का हॉर्न बजा देता है। साथ-ही-साथ इसी दौरान घरों की तलाशी भी समानांतर जारी रहती है।
ठीक इसी तरह का घटनाक्रम उस दिन कुनन-पोशपोरा में भी हुआ। सेना ने पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग कतारों में खड़ा किया पर इसके बाद जो हुआ उस पर आज तक संशय है।
18 मार्च को खबर आई कि भारतीय सेना ने हथियारों की तलाशी के नाम पर 30 महिलाओं का बलात्कार किया है, हालाँकि ये संख्या निश्चित ना रही और वक्त-बेवक्त इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे।
कहते हैं कि उस रात गाँव में क्या हुआ ये छिपाने के लिए सेना ने कई दिनों तक गाँव की बाहरी घेरेबंदी नहीं खुलने दी और गाँव की बात गाँव में ही दफ्न हो गई पर वक्त बीता और उस रात की घटना का जिन्न बाहर आया। दरअसल घटना के लगभग चौथाई शताब्दी बाद एक किताब आई, जुबान सीरिज़ से प्रकाशित, नाम था – ‘डू यू रिमेंबर कुनन पोशपोरा’। किताब को लिखा था, पाँच कश्मीरी लड़कियों ने, जिनके नाम थे – एसार बतूल, इफरा बट, समरीना मुश्ताक, मुंजा राशिद और नताशा रातहर। ये पाँचों ‘जम्मू-कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसायटीज’ के लिए ‘जम्मू-कश्मीर में यौन हिंसा और रोग प्रतिरोधक शक्ति’ पर काम कर रही थी और इसी दौरान इन्हें कुनन-पोशपोरा हादसे की जानकारी मिली।
अब किताब पर आते हैं कि उसमें क्या लिखा है तो किताब में उस दिन की तथाकथित पीड़िताओं की आपबीती उनके काल्पनिक नामों के साथ दर्ज है और यदि पुस्तक का सार देखें तो उसमें बस ये बताने का प्रयास किया गया है कि उस दिन भारतीय सेना बलात्कार का विचार लेकर ही गाँवों में दाखिल हुई थी और ये सब बताने के लिए कई दृष्टांतों का प्रयोग किया गया है। जैसे – सेना अपने साथ शराब की बोतलें लेकर आई थी या एक पीड़िता का बयान कि जब मैं घर में दाखिल हुई तो मैंने सैनिकों के पैंट की जिप खुली देखी और मैं उनके मंसूबे समझ गई आदि।
लेकिन ये बस कहानी का एक हिस्सा है, एक दूसरा पक्ष भी है जो भारतीय सेना का है और भारतीय सेना ऐसी किसी घटना के अस्तित्व से ही इन्कार करती है। साथ-ही-साथ अपने पक्ष में जाँचों का भी हवाला देती है जो कि इस केस के सम्बंध में आज तक हुई हैं।
दरअसल 25 फरवरी को गाँव वालों ने स्थानीय तहसीलदार को चिट्ठी भेजी और कुपवाड़ा के डिप्टी कमिश्नर एस एस यासी ने 2 मार्च को इस चिट्ठी के मिलने की पुष्टि की। इसी चिट्ठी के आधार पर 8 मार्च को एफआईआर दर्ज की गई।
7 मार्च को डिप्टी कमिश्नर ने तत्काली डिविजनल कमिश्नर वजाहत हबीबुल्लाह को लिखा, ‘मुझे जिस घटना के बारे में जानकारी दी गई है उसे जानकार मैं सदमे में हूँ।’ बहरहाल यह घटना मार्च के महीने में सार्वजनिक दायरे में आई। 18 मार्च 1991 को वजाहत हबीबुल्लाह ने गाँव का दौरा किया और इसी दिन घटना की जानकारी मीडिया को भी दी गई।
सरकार को सौंपी गोपनीय रिपोर्ट में हबीबुल्लाह ने आरोपों की सत्यता को लेकर सवाल उठाए लेकिन उन्होंने गाँव वालों के गुस्से को भी स्वीकार किया।उन्होंने इस मामले में उच्चाधिकार समिति बिठाए जाने की माँग की।उन्होंने कहा कि जाँच रिपोर्ट में देरी से यह लग सकता है घटना को दबाया जा रहा है,साथ ही लंबी देरी की वजह से मेडिकल जाँच को लेकर कई तरह की शंकाएँ हैं।
हालाँकि जब हबीबुल्लाह की रिपोर्ट सार्वजनिक की गई तो कुछ जानकारियों को गायब कर दिया गया।घटना के करीब 22 सालों बाद हबीबुल्लाह ने यह कहा कि सरकार ने इस घटना को निपटने में गलत तरीका अख्तियार किया।
इन सभी घटनाओं के बाद बी जी वर्गीत की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित की गई जिसने कुनन-पोशपोरा गाँव के लोगों के आरोप को ‘बेकार’ करार दिया। समिति ने कहा कि इस घटना की आड़ में सेना को बदनाम करने की कोशिश की गई है, अंततः अक्टूबर 1991 में जम्मू-कश्मीर पुलिस ने इस मामले को बंद कर दिया।
सालों तक वर्गीज समिति की रिपोर्ट को लेकर सवाल उठाए जाते रहे। मसलन कमेटी की तरफ से तीन पीड़ितों के मेडिकल जांच में उनके हाइमन के डैमेज होने की बात सामने आई थी जबकि वह शादीशुदा नहीं थीं। इसके अलावा कई पीड़ितों की छातियों और पेट पर जख्म के निशान थे। समिति ने कहा, ”पेट पर जख्म के निशान कश्मीरी महिलाओं में आम हैं क्योंकि वह कांगरी पहनती हैं,जहाँ तक हाइमन के डैमेज होने की बात है तो वह कई जाहिर कारणों की वजह से हो सकता है- मसलन चोट लगना या फिर शादी से पहले सेक्स।”
इसी बीच सामूहिक बलात्कार का आरोप झेल रही सेना ने ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया’ से इस मामले की जाँच किए जाने की माँग की।
2011 में राज्य मानवाधिकार आयोग ने कहा कि आरोपी सैनिक घटना की रात शैतान बन गए। राज्य मानवाधिकार आयोग ने पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने की माँग की और साथ ही आरोपियों के खिलाफ आपराधिक मामला चलाए जाने की सिफारिश की हालाँकि राज्य मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
निर्भया बलात्कार कांड के बाद ये मामला फिर सुर्खियों में आया जब पीड़ितों ने 2013 की शुरुआत में हाई कोर्ट के समक्ष एक याचिका देकर राज्य मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों को लागू करने की अपील की हालाँकि कोर्ट ने पीआईएल को सही नहीं माना।
हाईकोर्ट से माँग खारिज होने के बाद पीडि़त सुप्रीम कोर्ट गए पर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सुनवाई पर रोक लगा दी और बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा कानूनी रूप से ठण्डे बस्ते में चला गया।
लेकिन बस कानूनी रूप से, राजनीतिक रूप से नहीं और वैसे भी राजनीतिक रूप से तो इतने सालों में कभी-भी इसकी चिंगारी शांत नहीं हुई थी। जम्मू-कश्मीर के स्थानीय नेता इसे बुलंद करते रहते तो भारतीय शासन इसे नकारता रहता लेकिन अंततः एक मर्तबा सन् 2013 में तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने घटना की सत्यता को स्वीकार करते हुए माफी माँगी।
माफी माँग ली गई पर न्याय नहीं मिला। आज कोई नहीं कह सकता कि घटना में किसका पक्ष सही है, इसीलिए निष्पक्ष जाँच की तो जरूरत है ना, ताकि पता चल सके कि क्या वास्तव में भारतीय सेना ने क्रूरता की थी या ये उसे बदनाम करने की साजिश मात्र थी क्योंकि जाँच होगी तो सच सामने आएगा, दोषी दंडित होंगे और बाकी कुछ हो या ना हो पर कश्मीरियों की रूह को सुकून जरूर मिलेगा, वो जानेंगे कि इस मुल्क में उनकी आवाज भी सुनी जाती है और ऐसा होगा तो अलगाववाद कम होगा। साथ ही सेना पर लगे कलंक की सच्चाई सामने आएगी और कश्मीर में सेना का भविष्य निर्धारित होगा।