मुल्क का एक प्रधानमंत्री जो विदेश जाता है तो एक ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर करता है जिसके लिए वो खुद तैयार नहीं था, एक ऐसा प्रधानमंत्री जो युद्ध के उपरान्त ना केवल पड़ोसी शत्रु मुल्क की सारी बातें मानता है वरन् उसे खैरात भी देकर आता है, एक ऐसा नेता जिसके वापस आने पर एक दूसरे लापता नेता की सच्चाई सामने आने की संभावना बनती है पर वह नेता वापस नहीं आता और एक समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही घंटों बाद मृत्यु को प्राप्त होता है। साथ-ही-साथ भारत से बाहर मृत्यु को प्राप्त होने वाला पहला और आज तक का एकमात्र प्रधानमंत्री बनता है। आज की कहानी उसी प्रधानमंत्री की कहानी है और उस प्रधानमंत्री का नाम है – लाल बहादुर शास्त्री तथा वह समझौता है – ताशकंद समझौता।
ये कहानी पाकिस्तान संचालित ऑपरेशन जिब्राल्टर के साथ शुरू होती है जिसके तहत पाकिस्तान कश्मीर के चार ऊँचाई वाले इलाकों गुलमर्ग, पीरपंजाल, उरी और बारामूला पर कब्जा करने की योजना बनाता है ताकि भारत से युद्ध लड़ने में आसानी हो पर हिन्दुस्तान को उसके मंसूबों का इल्म हो जाता है। हिंदुस्तानी फौज कार्यवाही करती है और ऑपरेशन जिब्राल्टर फेल हो जाता है। भारत की इस कार्यवाही से सरहद पार का क्रोध सारी सीमाओं को तोड़ देता है जिसकी परिणिति होता है – 1965 का युद्ध।
युद्ध के दौरान भारतीय सेना फिर हरकत में आती है। पाकिस्तानी सेना को खदेड़ा जाता है और भारतीय सेना की तैनाती लाहौर के बाहर तक हो जाती है लेकिन यहीं पर भारत के आर्मी चीफ जयंतो नाथ चौधरी एक गलती करते हैं जिसका वर्णन तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण की पुस्तक ‘1965 वॉर, द इनसाइड स्टोरी: डिफेंस मिनिस्टर वाई बी चव्हाण्स डायरी ऑफ इंडिया-पाकिस्तान वॉर’ में दर्ज है। उसमें लिखा गया है कि भारत के आर्मी चीफ डरपोक किस्म के इन्सान थे।वे बहुत जल्द डर जाते थे। चव्हाण उनको कहते थे कि सीमा पर जाओ मगर चौधरी सीमा पर जाने से डरते थे। युद्ध के दौरान 20 सितंबर 1965 को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आर्मी चीफ से पूछा कि अगर जंग कुछ दिन और चले तो भारत को क्या फायदा होगा? सेना प्रमुख ने कहा कि आर्मी के पास गोला-बारूद खत्म हो रहा है इसीलिए अब और जंग लड़ पाना भारत के लिए ठीक नहीं है। उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी कि भारत को रूस और अमेरिका की पहल पर संघर्ष विराम का प्रस्ताव मंजूर कर लेना चाहिए और शास्त्री जी ने ऐसा ही किया लेकिन बाद में मालूम चला कि भारतीय सेना के गोला-बारूद का केवल 14 से 20 प्रतिशत सामान ही खर्च हुआ था। अगर भारत चाहता तो पाकिस्तान का नामो-निशान मिटाने तक लड़ता रहता लेकिन भारत के सेनाध्यक्ष की गलत जानकारी देने की गलती के कारण ऐसा नहीं हो सका।
ख़ैर जो गलती होनी थी वो हो गई अब बारी बातचीत की थी और बातचीत की मेज माॅस्को में सजती है। वही माॅस्को जो उस समय भारत का करीबी समझा जाता था और शीत युद्ध के दौरान अमेरिका की पाकिस्तानपरस्ती के समय जो सदा भारत को सहायता मुहैया कराता था और यही कारण भी था कि वार्ता स्थल के रूप में अमेरिका पर रूस को तवज्जो दी गई।
वक्त बीतता है और 10 जनवरी की तारीख आ जाती है। इस दिन तक शास्त्री जी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान के बीच कई दौर की वार्ता हो चुकी थी और इस दिन समझौते पर हस्ताक्षर भी हो गए पर यह समझौता भारत के लिए कुठाराघात था क्योंकि भारत ने हाजी पीर और ठिठवाल पाकिस्तान को वापस दे दिए थे जबकि पाकिस्तान ने ‘नो वॉर क्लॉज़’ को मानने तक से इन्कार कर दिया था। कोई नहीं जानता कि शास्त्री ने ऐसी शर्तें क्यों मानी।शायद वो मुल्क वापस आते तो उनसे ये पूछा जाता पर नियति, उसे उसे तो कुछ और ही मंजूर था। एक सरकारी दस्तावेज के अनुसार, रात साढ़े बारह बजे तक सब कुछ सामान्य था पर तभी अचानक उनकी तबीयत खराब होने लगी जिसके बाद वहाँ मौजूद लोगों ने डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर आर एन चग ने पाया कि शास्त्री की साँसें तेज चल रही थी और वो अपने बेड पर छाती को पकड़कर बैठे थे। इसके बाद डॉक्टर ने इंट्रा मस्कूलर इंजेक्शन दिया। इंजेक्शन देने के तीन मिनट के बाद शास्त्री का शरीर शांत होने लगा, साँस की रफ्तार धीमी पड़ गई। इसके बाद सोवियत डॉक्टर को बुलाया गया। इससे पहले कि सोवियत डॉक्टर इलाज शुरू करते रात 1:32 पर शास्त्री की मौत हो गई।
हालाँकि ये मौत एक सामान्य मौत कभी नहीं मानी गई और उस रात हुए घटनाक्रम भी इसी ओर इशारा करते हैं। उस रात शास्त्री के होटल में प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर मौजूद थे। कुलदीप नैयर बताते हैं कि देर रात उन्होंने अपने घर पर फोन मिलाया। फोन उनकी सबसे बड़ी बेटी ने उठाया था। फोन उठते ही शास्त्री बोले, ”अम्मा को फोन दो।” शास्त्री अपनी पत्नी ललिता को अम्मा कहा करते थे।उनकी बड़ी बेटी ने जवाब दिया, ”अम्मा फोन पर नहीं आएँगी।” शास्त्री जी ने पूछा क्यों? जवाब आया क्योंकि आपने हाजी पीर और ठिथवाल पाकिस्तान को दे दिया है, वो बहुत नाराज हैं। शास्त्री को इस बात से बहुत धक्का लगा। इसके बाद वो परेशान होकर अपने कमरे में चक्कर लगाने लगे। हालाँकि कुछ ही देर में उन्होंने फिर से अपने सचिव वेंटररमन को फोन किया।वो भारत में नेताओं की प्रतिक्रिया जानना चाहते थे। उन्हें बताया गया कि अभी तक दो ही प्रतिक्रियाएं आई हैं, एक अटल बिहारी वाजपेयी की और दूसरी कृष्ण मेनन की,दोनों ने ही उनके इस कदम की आलोचना की है।
कुलदीप आगे बताते हैं कि उस समय भारत-पाकिस्तान समझौते की खुशी में होटल में पार्टी चल रही थी और चूँकि वे शराब नहीं पीते थे तो वे अपने कमरे में आ गए और सो गए।सपने में उन्होंने देखा कि शास्त्री जी का देहांत हो गया है। वे बताते हैं कि उनकी नींद दरवाजे की दस्तक से खुली।सामने एक रूसी औरत खड़ी थी, जो उनसे बोली, “यॉर प्राइम मिनिस्टर इज डाइंग।”
कुलदीप नैयर बताते हैं कि वे तेजी से अपना कोट पहनकर नीचे आये। वहाँ पर रूसी प्रधानमंत्री कोसिगिन खड़े थे। उन्होंने कुलदीप नैयर से कहा, ”शास्त्री जी नहीं रहे।” वहाँ पर बहुत बड़े से एक पलंग पर शास्त्री जी का छोटा सा शरीर सिमटा हुआ पड़ा था।कुलदीप नैयर बताते हैं कि वहाँ पर जनरल अयूब भी पहुंचे और कहा, “हियर लाइज अ पर्सन हू कुड हैव ब्रॉट इंडिया एंड पाकिस्तान टुगैदर” (यहां एक ऐसा आदमी लेटा हुआ है, जो भारत और पाकिस्तान को साथ ला सकता था।)
लेकिन अयूब खान का ये कथन पाकिस्तान के सिर्फ एक चरित्र को दिखाता है। कहानी का एक दूसरा पक्ष भी है जिसका वर्णन अरशद शामी खान की पुस्तक ‘थ्री प्रेसिडेंट्स एंड एन आइड: लाइफ, पावर एंड पॉलिटिक्स’ में किया गया है। उन्होंने लिखा है कि अजीज अहमद को शास्त्री की मौत की खबर मिली।वो खुशी से झूमता हुआ भुट्टो के कमरे में पहुँचा और कहा- वो मर गया। भुट्टो ने पूछा- ” दोनों में से कौन? हमारा वाला या उनका वाला?” इस कथन से ये सवाल उठता है कि क्या अयूब खान और लाल बहादुर शास्त्री में से किसी एक की हत्या निश्चित थी? क्या इस हत्या में भुट्टो का हाथ था?
ये शास्त्री के मौत पर एक मत और है कि है कि इसमें सीआईए का हाथ था। दरअसल वर्ष 1996 में रॉबर्ट ट्रमबुल नाम के एक पूर्व सीआईए अधिकारी ने कहा था कि शास्त्री की मौत के पीछे सीआईए का ही हाथ था और एक पूर्व अधिकारी का ऐसा कथन संशय तो उत्पन्न करता ही है।
यदि इन सबसे भिन्न सोवियत रूस का कहा माने तो शास्त्री जी को दिल का दौरा पड़ा था। ऐसा हो सकता है कि शास्त्री जी को इस बात की चिंता सता रही हो कि उन्होंने देश के लोगों से किया वादा पूरा नहीं किया। वो जानते थे कि इस समझौते से भारत में सब बहुत नाराज होंगे।भारतीय सेना सबसे ज्यादा मायूस होगी।शायद यही तनाव रहा हो और उन्हें दिल का दौर पड़ा हो पर रूस के इस सिद्धांत के बावजूद भी कुछ प्रश्न अनसुलझे ही रहते हैं-
1- शास्त्री जी का शव जब भारत लाया गया तो उनके परिवार ने मृत देह पर नीले निशान पाए परन्तु तब भी भारत एवं रूस में से किसी ने भी शव का पोस्टमार्टम कराने की जहमत नहीं उठाई।
2- उस दिन शास्त्री जी के निजी रसोइए राम नाथ ने खाना नहीं पकाया था जो कि सभी विदेशी दौरों में मात्र इसी कार्य के लिए उनके साथ रहता था। उसके स्थान पर उस समय रूस में भारत के राजदूत टी एन कौल के शेफ जान मुहम्मद ने खाना पकाया था। उम्मीद थी कि राम नाथ इस पर कोई स्पष्टीकरण देंगे पर इससे पहले ही उन्हें एक कार ने धक्का मार दिया और उनकी याददाश्त चली गई।
3- आम तौर पर बड़े नेता जिस कमरे में रुकते हैं उसमें एक घंटी लगी होती है ताकि जरूरत पड़ने पर किसी को बुलाया जा सके मगर शास्त्री जी के कमरे में कोई घंटी या बजर भी नहीं था।
4- शास्त्री जी जिस डायरी में अपने प्रतिदिन का घटनाक्रम लिखते थे, वो गायब थी जबकि उसके माध्यम से भारत के प्रतिकूल समझौते पर हस्ताक्षर के कारण पता चल सकते थे।
5- शास्त्री जी द्वारा प्रयुक्त थर्मस गायब था जिससे उसमें जहर होने की संभावना प्रतीत होती है।
6- सन् 2015 में इसी ताशकंद समझौते की एक तस्वीर सामने आई थी। जिसे देखकर ब्रिटिश फोरेंसिक एक्सपर्ट नील मिलर ने फोरेंसिक फेस मैपिंग रिपोर्ट के आधार पर दावा किया कि तस्वीर में उपस्थित लोगों में से एक शख्स नेताजी सुभाष चंद्र बोस हैं तो क्या शास्त्री जी ये सूचना लाने वाले थे कि नेताजी जिन्दा हैं? और क्या यही उनकी मौत का कारण बना?
बहरहाल ये सभी मात्र संभावनाएँ हैं, जिन पर मात्र मत रखा जा सकता है, सच तो तभी सामने आएगा जब आज-तक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा’ कहकर दबाई गई फाइलें बाहर आएँगी और बाहर आएगी वर्षों से प्रतीक्षित एक हकीकत।
First Published on kshitijthewriter.wordpress.com