बच्चा गब्बर का, बेटी गरधा की

मायानगरी मुंबई, आर्थिक ही नहीं मनोरंजन की राजधानी भी है और इसी बॉलीवुड का हिस्सा बनने, अपनी किस्मत आजमाने, सपनों को साकार करने हर रोज़ देश के कोने कोने से लोग आते हैं और एक ऐसे सफर की ओर चल पड़ते हैं, जहाँ के पथरीले, काँटों भरे रास्ते तो पता है पर मंज़िल मिलने की कोई गारंटी नहीं। ना जाने कितने सपने यहाँ आकर लौट जाते हैं, कितने भटक जाते हैं और कितने दम तोड़ देते हैं। जहाँ एक ओर नेपोटिज़्म की चर्चा ज़ोरों पर है वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे भी विरले हैं, दीवाने हैं, जिद्दी जुनूनी हैं जो बस दिन-रात अपने सपनों का इस कदर पीछा करते हैं कि एक दिन किस्मत खुद उनके दरवाज़े पर दस्तक दे ही देती है। हालाँकि उनकी मेहनत, लगन और विश्वास की जीत को किस्मत का नाम देना अन्याय होगा। और आज की कहानी उसी मेहनती, जुनूनी और बेबाक-बिंदास लड़की… लड़की नहीं लेखक, निर्देशक, गायक नेहा विजय सुधा की है।

मध्य प्रदेश के छोटे से गाँव गरधा के एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी पली-बढ़ी नेहा, जिसकी प्रारंभिक शिक्षा मध्य प्रदेश से ही हुई और ग्रेजुएशन के बाद सोच लिया था कि करना तो कुछ फ़िल्मी ही है सो आ गई पुणे, एमबीए करने, नहीं मास-कॉम की पढ़ाई करने। उसके बाद आई सपनों के शहर मुंबई, अकेली। अकेली इसलिए कि वैसे भी अकेली ही आई थी और उसके फ़िल्म जगत में भविष्य बनाने के डिसीजन, फैसले, निर्णय में भी वो अकेली ही थी, यानि कि उसके घर-परिवार वाले फ़िल्म जगत को सम्मान से नहीं देखते थे… अभी भी नहीं देखते हैं।

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सोचा तो था कि शुरू में किसी बड़े डाइरेक्टर के साथ काम करके सीखना है पर वैसे मौके आए ही नहीं, लेकिन हाँ, शुरुआत में कुछ बड़े लेखक, रायटर के साथ ज़रूर काम किया और जल्द ही दो बातें समझ आ गई कि बेस्ट ही हो, बड़ा ही ऐसा कुछ करने के या नहीं करने के बदले कुछ छोटा ही किया जाए, जैसे भी सही शुरुआत की जाए। और ऐसे ही एक दिन शुरुआत हुई चंद दोस्तों और जुगाड़ से शॉर्ट फ़िल्म “बिरयानी” बनाकर। बिरयानी ओटीटी पर दशकों को पसंद भी आई। इसके बाद तो नेहा शॉर्ट फ़िल्म्स, म्यूजिक विडियो बनती गईं। और आखिर एक दिन नेहा ने लिखी अपनी पहली फीचर फ़िल्म की स्क्रिप्ट, जो कितने ही प्रोड्यूसर डाइरेक्टर को सुनाई, सबने सुनी, तारीफ भी की पर फ़िल्म किसी ने नहीं बनाई, आखिरकार नेहा ने ही इस बड़ी फ़िल्म को निर्देशित करने का बीड़ा उठाया और जहाँ चाह होती है वहाँ राह होती है। तो उन्हें प्रोड्यूसर मिल ही गया। वैसे उसे बनाने में भी कई पापड़ बेलने पड़े थे पर फ़िल्म गब्बर का बच्चा बनी भी और आज हंगामा और कई अन्य ओटीटी पर दर्शकों को हँसा भी रही है।

नेहा को किसी एक टाइप के सिनेमा में बंधना पसंद नहीं है, हालाँकि वो एक्शन, साई-फ़ाई और पोलिटिकल ज़ोनर से ज़्यादा जुड़ नहीं पातीं, उन्हें सामाजिक, रिश्तों के ताने बाने ऐसी फ़िल्में बनाना ज़्यादा पसंद है। वे अक्सर फ़िल्मों की बातें और चर्चा करने वालों से दूर रहती हैं। उनका मानना है कि सिर्फ बातें करके क्या मिल जाएगा, इससे बेहतर अपनी ऊर्जा, समय, और एक फ़िल्म के बारे में सोचने या काम करने में लगाऊँ। मजीद मजिदी की फ़िल्में उन्हें बहुत पसंद है।

मुंबई शहर के बारे में कहती हैं, यहाँ जो अपने सपनों पर फोकस नहीं करता, वो अक्सर भटक कर रह जाता है, वर्ना मुंबई शहर बहुत कुछ देता है सबको। ये इंटरव्यू तो यही पूरा होता है लेकिन इनका सफर, इनकी यात्रा, इनका जुनून और ज़िद्द यूँ ही जारी रहेगा।

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